मृत्यु+भोज=मृत्युभोज।मृत्यु के साथ भोज शब्द जब जुड़ जाता है तो यह मानव सभ्यता से परे किसी पशु सभ्यता से संबंधित होने की कल्पना क्षेत्र में चला जाता है।वैसे मैंने अपने जीवन मे देखा है कि खुर वाले पशु खुर वाले को व पंजे वाले को नहीं खाते है!कुत्ते-बिल्ली की दुश्मनी की कहानियां हमने बहुत पढ़ी है।दोनों पालतू व जंगली हो सकते है इसलिए शायद अधिकार को लेकर झगड़ा रहा होगा मगर कभी मरी बिल्ली को कुत्ता नहीं खाता व मरे कुत्ते को बिल्ली नहीं खाती।
हर जीवित प्रजाति अपने सहोदर के साथ इतना घिनौना अपराध नहीं किया है जितना मानव प्रजाति ने किया है और मृत्युभोज इसका जीता-जागता उदाहरण हमारे सामने है।एक इंसान की मौत पर भोज,लेनदेन की खींचतान,ओढावनी-पहरावणी के झगड़े,,लाचार-बेबस परिवार का मुँह बंद करके सामाजिक तानाशाही!इंसान जानवर बन जाये तो भी अपनी प्रजाति पर रहम कर जाएं मगर इंसान बनकर जो संवेदनहीनता,क्रूरता की पराकाष्ठा लांघी है वो अक्षम्य है मगर आगे न लांघी जाएं उसको रोकना जरूरी है नहीं तो हमारी भावी पीढियां इन मूर्खताओं को पढ़कर शर्मिंदा होगी!
1960 में मृत्युभोज रोकथाम अधिनियम बना।उस समय इस बुराई के खिलाफ लड़ने वाले व कानून बनवाने वाले हमारे पुरखे कितने दूरदर्शी रहे होंगे!सत्ता पर कब्जाधारी लोग कभी इन मूर्खताओं पर कानून बनाकर रोकने का प्रयास नहीं करते बल्कि जब दबाव पड़ता है तो कानून बनते है।इस कानून में जानबूझकर एक खामी रखी गई।रोकथाम की जिम्मेदारी किसी के कंधे पर नहीं डाली गई।कानून तो दबाव में बना मगर अनुपालना कौन करेगा,इसकी जिम्मेदारी किसी पर भी नहीं डाली गई।
इससे मृत्युभोज रूपी बुराई के खिलाफ लिखने का कानूनी अधिकार हमे मिला और हमारे जैसे लोग वर्षों से जागरूकता अभियान चला रहे थे मगर जब कोई मरता तो समाज के लोग मृत्युभोज का आयोजन कर देते।हमारी मेहनत बेकार नहीं गई।जागरूकता आई मगर इन मौके पर हम जंग इसलिए हार जाते थे कि सांसद, विधायक,सरपंच,पटवारी,ग्रामसेवक खुद पट्टी,खेड़ा,न्यात की जाजम पर सफेद झोला पहनकर बैठ जाते थे और जागरूकता अभियान चला रहे लोग निराश हो जाते थे कि पुलिस को सूचना देने पर भी कुछ होगा नहीं फालतू में समाज मे दुश्मनी पैदा हो जाएगी।
पिछले लंबे समय से हमने इसको लेकर हर मंच पर दबाव बनाया कि कानून तो है मगर पटवारी,ग्रामसेवक,सरपंच आदि ग्राम पंचायत के कारिंदों पर जब तक जिम्मेवारी नहीं डाली जाती तब तक इसको रोकना संभव नहीं है।मेरे रिश्ते के चाचाजी गुजर गए लॉक डाउन में और बाद में मृत्युभोज करने की सूचना मुझे मिली।मैंने जिम्मेदारों को संबोधित करते हुए लिखा था मगर रोक नहीं पाए।लोग तो 100 ही एकत्रित हुए मगर यह गलत था।कई मित्रों से बात की।बात सीएम गहलोत साहब तक पहुंचाई गई।डीजीपी से लेकर एसपी तक पत्र लिखे गए।शुक्रिया अदा करते है कि गहलोत साहब ने तुरंत संज्ञान लिया और कानूनी जिम्मेवारी तय की।
मृत्युभोज की बुराई से हर समाज झकड़ा हुआ है और हर समाज के जागरूक लोग इसके खिलाफ लंबे समय लड़ रहे है।अब जिम्मेदारी तय हो गई है तो हम सबको मिलकर इस कुरीति को मिटाने का प्रयास करना चाहिए।ग्राम पंचायत स्तर पर 4-5 लड़के तैयार हो जाएं जो किसी के मौत पर हमें सूचित कर दें।हम पहले से संबंधित क्षेत्र के थाना अधिकारी व एसडीएम को सूचना कर देंगे।उसके बाद भी अगर मृत्युभोज हुआ तो उसकी फोटो/वीडियो चुपचाप हमे उपलब्ध करवा दें ताकि स्थानीय जिम्मेदारों के ऊपर मुकदमा दर्ज करवाया जा सके।
हमने 90%विजय इस बुराई पर प्राप्त कर ली है बस एक जोर के झटके की जरूरत है।10-15 पटवारी-सरपंच पर मुकदमे हो गए तो सब जिम्मेदारी कंधों पर उठाकर चलने लग जाएंगे।हमारा प्रयास होना चाहिए कि साल भर के भीतर इस कलंक से मुक्त हो जाएं!
काश हमारे पूर्व के सरपंच स्वविवेक से इस तरह की पहल करते तो न जाने कितने बच्चे अनपढ़ रहने से बच जाते!कितने परिवार कर्ज में फंसकर गरीबी के दुष्चक्र में फंसने से बच जाते!सरपंच खेड़ा, पट्टी,इंडा समिति की अध्यक्षता न करते तो उज्जलत के कई सौपान पार कर लिए होते।किंतु देर आये मगर दुरुस्त आये।ऐसे सरपंचों को समाज आदर्श माने और इनसे दूसरे सरपंच प्रेरणा ले इसके लिए हमारी कलमों की सीमाएं खुलनी चाहिए।