महाराजा रणजीतसिंह की गणना भारत के महान् शासकों में की जाती है। इटालियन जाति में जुलियस सीजर, फ्रांसीसियों में नैपोलियन, जर्मनों में लूथर, हिटलर और यूनानियों में जो स्थान सिकन्दर का है उनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उज्जवल स्थान ने केवल सिक्खों एवं जाटों में बल्कि भारतवासियों में महाराजा रणजीतसिंह का है।
बौद्धकाल में बौद्धर्म में जो महत्त्व मौर्य जाट सम्राट् अशोक का है वही सिक्खों और जाटों में संधावलिया गोत्र के जाट महाराजा रणजीतसिंह का है। एक साधारण स्तर से प्रगति करके उन्होंने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इनके नेतृत्व में सिक्ख एक मजबूत, शक्तिशाली और संगठित सैनिक राज्य में परिवर्तित हो गए। निःसन्देह महाराजा रणजीतसिंह में एक जन्मजात शासक की विशेषतायें थीं। स्वयं निरक्षर होते हुए भी विलक्षण बुद्धि, अद्भुत शक्ति, विशुद्ध राजनीति और संगठन करने की जिस अनोखी प्रतिभाशालिता का उन्होंने परिचय दिया वह स्वाभिमानी जाट जाति के इतिहास में आदर्श उदाहरण है।
जिन दुर्दान्त पठानों की प्रचण्ड वीरता के सामने सारा भारत एक बार कम्पायनमान हो रहा था, उन्हें दिलेरी से दण्ड देकर यदि किसी भारतीय नरेश ने सीधा तथा अपने अधीन बनाया तो वह केवल महाराजा रणजीतसिंह ने ही ऐसा किया। इनके समय सिक्खों का सौभाग्यसूर्य मध्याह्न पर था। महाराजा रणजीत एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आस पास भी नहीं फटकने दिया।
महाराजा रणजीतसिंह का जन्म 13 नवम्बर 1780 ई० को गुजरांवाला में हुआ। उसके पिता चन्द्रवंश में संधावालिया गोत्र के जाट महासिंह थे जो सुकरचकिया मिसल के नेता चरतसिंह के पुत्र थे। रणजीतसिंह की माता का नाम राजकौर था। जब रणजीतसिंह 5 वर्ष के हुवे तो उन्हें पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजा गया, परन्तु रुचि न होने के कारण इन्होंने पढ़ना बन्द कर दिया। बचपन में ही रणजीतसिंह को भयानक चेचक निकल आई जिससे उनकी शक्ल बहुत बिगड़ गई और उसकी बाईं आंख भी खराब हो गई।
एक वीर तथा महत्त्वाकांक्षी युवक होने के कारण के सारे पंजाब पर अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे। अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी विजययात्रायें आरम्भ कर दीं। उसकी विजयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है -
लाहौर की विजय (सन् 1799-1800)
अमृतसर की विजय (1805 ई०)
सिक्ख मिसलों के प्रदेशों की विजय (1802-1811 ई०)
कसूर और झंग की विजय (1807 ई०)
कांगड़ा की विजय (1809 ई०)
अटक की विजय (1813 ई०)
मुलतान की विजय (1818-1819 ई०)
कश्मीर विजय (1819 ई०)
मुंघेर, डेरा इस्माईलखां, बन्नू आदि की विजय (1821 ई०)
पेशावर की विजय (1834 ई०)
महाराजा रणजीतसिंह ने एक विशाल साम्राज्य बना लिया था। इनके राज्य की सीमायें उत्तर में कराकोरम पर्वत और तिब्बत तक, दूसरी ओर उत्तर पश्चिम में हिंदुकुश व सुलेमान पहाड़ियों को छूती थी। दक्षिण-पूर्व में इनका राज्य सतलुज नदी तक और दक्षिण-पश्चिम में सिन्धु नदी व सिन्ध प्रान्त तक था। पश्चिम में सिन्धु नदी तथा उसके पार डेरागाजी खां, डेरा इस्माइल खां, बन्नू, कोहाट और पेशावर के प्रान्त इनके राज्य में शामिल थे। इनका राज्यविस्तार तत्कालीन सम्पूर्ण भारतीय नरेशों से अधिक एवं शक्तिशाली था। महाराजा रणजीतसिंह को यदि भारत के अन्तिम सम्राट् कह दिया जाये तो वजा होगा। उसने अपने राज्य को चार सूबों में बांटा था - (1) लाहौर (2) मुलतान (3) कश्मीर (4) पेशावर।
महाराजा ने बहुत से प्रदेशों पर विजय प्राप्त करके अपनी छोटी-सी सुकरचकिया मिसल को एक विशाल राज्य में परिवर्तित कर दिया। वीर योद्धा पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह का 27 जून 1839 ई० को स्वर्गवास हो गया।
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