ये वो चार वर्ग हैं जिनकी धारणा है कि युवक-युवतियों को पढाई-लिखाई के साथ-साथ कोई न कोई व्यवसाय करना सीखना चाहिए, क्योंकि एक दुकान से पूरे परिवार को रोजगार मिलता है।
अगर किसी भी कारण इनके बच्चे पढने-लिखने में कमजोर या नालायक भी निकल जाएं तब भी उन्हें चिंता नही सताती क्योंकि कुछ न कर पाने की स्थिति में भी उनका बच्चा परिवार का व्यवसाय संभाल लेगा।
पढने-लिखने के बाद नौकरी नहीं मिले तो स्वयं का कारोबार करने से बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं मानते हैं, शायद यही वजह है कि इन कौमों में कभी मजदूर या भिखारी नही पैदा होते।
चीजों को वास्तविकता के धरातल पर भी देखें तो मजदूर अधिकतम 50 वर्ष की उम्र तक मजदूरी करने की शारीरिक क्षमता रखता है और जीवन भर मजबूर बना रहता है।
आधी उम्र घिसाकर सरकारी नौकरी पाने वाला व्यक्ति भी अधिकतम 60 वर्ष की उम्र तक ही नौकरी कर सकता है, और तब भी उसके बच्चों का भविष्य अनिश्चित बना रहता है।
इसके विपरीत व्यवसाय करने वाला व्यक्ति मरते दम तक दुकानदारी करने की मानसिक क्षमता रखता है और उनका व्यवसाय पीढी-दर-पीढी आगे बढ़ता रहता है।
इनके बच्चे पढ-लिख कर नौकरी करें तो ठीक, नहीं तो व्यवसाय में अधिक से अधिक आर्थिक विकास करते रहते हैं। व्यवसाय में पतले, मोटे, नाटे, विकलांग, बदसूरत सभी जायज माने जाते हैं क्योंकि व्यवसाय में दिमाग की जरूरत होती है जबकि मजदूरी में शारीरिक दमखम की।
फैसला आपके हाथ में है... चाहे तो बच्चों को पढने-लिखने के अतिरिक्त कोई न कोई व्यवसाय सिखाकर आत्मनिर्भर बना दीजिए, चाहे पीढ़ी दर पीढ़ी वही जीरो से शुरू होने वाली रेस का खिलाड़ी?
पढ़-लिख गया तो ठीक वरना ईंट, पत्थर, गारा, फावड़ा उसका इंतजार कर ही रहा होगा। अत: अपने दिमाग के घूंघट के पट खोलिये, नौकरी माँगने वाला नही देने वाला बनिये।
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