शनिवार, 8 अगस्त 2020

आरक्षण नहीं होता तो सिंह साहब का बेटा आईएएस बन जाता?


कई साल मुख़र्जी नगर में कोचिंग करते रहने के बाद भी सिंह साहब का बेटा आईएएस न बन सका. 2016 में बेचारे ने अपना आखिरी प्रयास किया, लेकिन नैय्या पार न लगी. आखिरकार आरक्षण व्यवस्था को सारा दोष देते हुए लड़का घर लौट गया. 

सिंह साहब ने लड़के के लिए दुकान खोल दी और सभी से कहने लगे कि 'भैय्या कामयाब होने के लिए तो इन दिनों दलित होना जरूरी है. हमारे बच्चे पढ़-पढ़ के मरे जा रहे हैं और दलित बिना मेहनत के ही आईएएस बन रहे हैं. कलयुग है भाई...' 

यूपीएससी में नाकाम होने वाले लाखों ब्राह्मण, क्षत्रिय और अनारक्षित छात्र और उनके माँ-बाप बिलकुल यही तर्क देते दिखते हैं. अपनी नाकामयाबी के लिए सीधे आरक्षण व्यवस्था को जिम्मेदार ठहरा देते हैं. 

लेकिन एक नज़र ज़रा आंकड़ों पर डालिए:

2016 में यूपीएससी में 1099 लोग सफल हुए थे. जानते हैं इन 1099 सीटों के लिए आवेदन कितने लोगों ने किया था? 11,36,000 लोगों ने. जी हां, लगभग साढ़े ग्यारह लाख लोगों ने....

अब मेरिट भी देख लीजिये.. दो सौ नंबर का प्री एग्जाम होता है. इसमें जनरल की मेरिट गई 116, ओबीसी की गई 110.66, अनुसूचित जाति की गई 99.34 और अनुसूचित जनजाति की गई 96. यानी दो सौ नंबर के मार्जिन में भी कट ऑफ का अधिकतम अंतर था मात्र 20 नंबरों का..... 

यानी जितने भी लोग सफल हुए, चाहे किसी भी जाति के हों, बेहद मेहनती थे जिनके अंकों में कोई भारी फासला नहीं था. 

लेकिन सफल तो 11,36,000 में से मात्र 1099 हुए थे. बाकी के 11,34,901 लोग, जो सफल नहीं हो सके वो क्या करें? भैया किसी पे तो असफलता का दोष थोपना ही है. तो इनमें से सारी अनारक्षित वर्ग की औलादें दोष थोप देती हैं आरक्षण पर. जैसे आरक्षण न होता तो इन 1099 सीटों पर लाखों अनारक्षित वर्ग की औलादें भर्ती हो जाती.....

भाई लोगों, आरक्षण नहीं भी होगा तो भी 1099 सीटों पर इतने ही तो लोग भर्ती होंगे न? जो लाखों लोग असफल हो रहे हैं और आरक्षण पर दोष मढ रहे हैं, वो सभी थोड़ी भर्ती हो जाएंगे.... 

आरक्षण ख़त्म होने से सवर्णों को कोई लाभ नहीं होने वाला. किसी भी पद के लिए उनका कम्पटीशन तब भी उतना ही कठिन रहने वाला है जितना आज है. हां, कुछ दलितों को इससे नुकशान जरूर होगा. क्योंकि उनका संवैधानिक हक़ मारा जाएगा. संविधान दलितों को आरक्षण देकर गैर बराबरी नहीं करता बल्कि उस गैर बराबरी का समाधान करता है जो हजारों सालों से हमारे समाज ने दलितों के साथ की है.  

सिविल सेवा की परीक्षा में दो-चार नंबरों से चूकने वाले परीक्षार्थी दूसरे या तीसरे प्रयास में सफल हो ही जाते हैं. आरक्षण को दोष वही लोग देते रह जाते हैं जो खुद जानते हैं कि उनके बस की बात नहीं है...!

ऐसे सवर्णों के बेटे अकेले में तो जरूर सोचते होंगे कि, 'शुक्र है कि आरक्षण व्यवस्था है वरना अपने निक्कमेपन का दोष किसे देता और पापा को क्या मुंह दिखाता?

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