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सोमवार, 15 जून 2020
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June 15, 2020 at 04:00PM
आरएसएस की राष्ट्रीय ध्वज से नफरत के प्रमाण RSS
आरएसएस की राष्ट्रीय ध्वज से नफरत के प्रमाण :-
1- दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास कर 26 जनवरी 1930 में पूरे राष्ट्र में तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता दिवस मनाने का प्रस्ताव पास हुआ। तत्कालीन आरएसएस संस्थापक और सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने से मना कर दिया जबकि तिरंगा आजादी की लड़ाई का प्रतीक था।
2-- आरएसएस राष्ट्रीय ध्वज का इस्तेमाल केवल श्री नगर के लाल चौक पर फहराने का प्रदर्शन कर मदरसों पर तिरंगा लहराने की मांग तो करता है परंतु देश की आज़ादी के लगभग 60 साल बाद तक आरएसएस ने अपने नागपुर मुख्य कार्यालय पर कभी तिरंगा झंडा नहीं लहराया चाहे वह 26 जनवरी 15 अगस्त के राष्ट्रीय पर्व ही क्यों न हों।
3 -- भारत की सैंविधान सभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार करने पर संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर की सम्पादकीय The National Flag आर्टिकल दिनाक 17 जुलाई 1947 में लिखा था
" हम इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं कि राष्ट्रीय झंडा ( तिरंगा ) देश के सभी दलों और समुदायों को स्वीकार्य होना चाहिए। यह निरी बेवकूफी है। हमारे लिए यह मुमकिन नहीं कि हम एक ऐसा झंडा चुने जो देश के सभी समुदायों की इच्छाओं आकांक्षाओं को संतुष्ट करे। यह गैर जरूरी अनुचित है। ''
4-- स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर दिल्ली के लाल किले पर 14 अगस्त 1947 में जब राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लहराने की तैयारी चल रही थी तब आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के चयन की खुल कर भर्त्सना करते हुए लिखा
"वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे थमा दें लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी स्वीकार किया जा सकेगा न सम्मानित किया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा ( झंडे के तीन रंग ) अपने आप में अशुभ है। एक झंडा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसान देह साबित होगा। ''
स्वतंत्रता के बाद तिरंगा राष्ट्रीय झंडा बना तब आरएसएस ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया।
5-- गोविलकर ने राष्ट्रीय झंडे पर अपने लेख #पतन_ही_पतन में लिखा
" उदाहरण स्वरूप हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए एक नया ध्वज तिरंगा निर्धारित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? यह पतन की और बहने तथा नक़लचीपन का स्पष्ट प्रमाण है। ''
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English translation
Evidence of hatred of RSS national flag: -
1- Passed the proposal of Purna Swaraj at the Lahore session of December 1929 and hoisted the tricolor across the nation on 26 January 1930 to celebrate Independence Day. The then RSS founder and Sarsanghchalak Keshav Baliram Hedgewar refused to adopt the tricolor as the national flag while the tricolor was a symbol of the freedom struggle.
2- The RSS demands the use of the national flag only to hoist the tricolor on the madrasas by displaying the hoisting at Lal Chowk in Sri Nagar, but the RSS never waved the tricolor at its Nagpur head office till about 60 years after the independence of the country. Even if it is the national festival of 26 January 15 August.
3 - The Constituent Assembly of India wrote the editorial of the Union mouthpiece The National Flag article on 17 July 1947 on the acceptance of the tricolor as the national flag.
"We do not agree at all that the national flag (tricolor) should be acceptable to all parties and communities in the country. It is very stupid. It is not possible for us to choose a flag that will satisfy the aspirations of all the communities of the country. Satisfy. This is necessarily unnecessary. ''
4 - On the eve of Independence Day, on 14 August 1947, while preparations were being made to wave the National Flag Tricolor at Red Fort, Delhi, the RSS mouthpiece Organizer openly condemned the selection of the National Flag Tricolor.
"Those who have reached power by the fate of fate may put the tricolor in our hands but it will never be accepted or honored by Hindus. The figure of three (three colors of the flag) is in itself inauspicious. A flag which has three colors will have a very bad psychological effect and will prove to be a harmful body for the country. "
After independence, the tricolor became the national flag when the RSS refused to accept it.
5-- Govilkar wrote his article on the national flag in #Panata_hi_patan
"For example, our leaders have set a new flag tricolor for our nation. Why did they do this? It is a clear proof of the downfall and the drunkenness."
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रविवार, 14 जून 2020
Partly Cloudy today!
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June 14, 2020 at 04:00PM
शनिवार, 13 जून 2020
साइमन कमीशन की हकीकत
*हमें आज तक यही पढ़ाया गया था, कि गांधी ने साइमन कमीशन का विरोध किया था ,, लेकिन यह नहीं पढ़ाया जाता कि तीन शख्स थे जिन्होंने साइमन कमीशन का स्वागत भी किया था ।।*
*इन तीन शख्स के नाम निम्न है -*
*1- ओबीसी से चौधरी सर छोटूराम जी। जो पंजाब से थे।*
*2- एससी से डॉक्टर बी आर अम्बेडकर। जो महाराष्ट्र से थे।*
*3- ओबीसी शिव दयाल चौरसिया जो यूपी से थे।।*
*अब सवाल ये उठता है कि गांधी ने साइमन का विरोध क्यों किया?*
*क्योंकि 1917 में अंग्रेजो ने एक एक कमेटी का गठन किया था,, जिसका नाम था साउथ बरो कमिशन,, जो कि भारत के शूद्र अति शूद्र अर्थात आज की भाषा में एससी एसटी और ओबीसी के लोगों की पहचान कर उन्हें हर क्षेत्र में अलग अलग प्रतिनिधित्व दिया जाए,, और हजारों सालों से वंचित इन 85% लोगों को हक अधिकार देने के लिए बनाया गया था,, उस समय ओबीसी की तरफ से शाहू महाराज ने भास्कर राव जाधव को,, और एससी एसटी की तरफ से डॉक्टर अम्बेडकर को इस कमीशन के समक्ष अपनी मांग रखने के लिए भेजा।।*
*लेकिन ये बात बाल गंगाधर तिलक को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने कोल्हापुर के पास अथनी नाम के गांव में जाकर एक सभा लेकर कहां कि तेली,, तंबोली,, कुर्मी कुनभट्टों को संसद में जाकर क्या हल चलाना है।।*
*इस तरह विरोध होने के बाद भी अंग्रेजो ने तिलक की बात को नहीं माना और 1919 में अंग्रजों ने एक बात कहीं कि भारत के ब्राह्मणों में भारत की बहु संख्यक लोगों के प्रति न्यायिक चरित्र नहीं है।।*
*इसे ध्यान में रखते हुए 1927 में साइमन कमीशन 10 साल बाद फिर से भारत में एक ओर सर्वे करने आया,, कि इन मूलनिवासी लोगों को भारत छोड़ने से पहले अलग अलग क्षेत्र में उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए,,,*
*इस साइमन कमिशन में 7 लोगों की एक आयोग की तरह कमेटी थी,, जिसमे सब संसदीय लोग थे।।*
*इसलिए इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया जा सकता था,, जो लोग भारत के मूलनिवासी लोगों के हक़ अधिकार का हमेशा विरोध करते थे,, जब यह कमिशन एससी एसटी और ओबीसी लोगों का सर्वे करने भारत आया तो,, गांधी,, लाला लाजपराय,, नेहरू और आरएसएस ने इसका इतना भयंकर विरोध किया कि कई जगह साइमन को काले झंडे दिखाए गए,, लाला लापतराय ने इसलिए अपने प्राण दे दिए,, चाहे मै मर भी क्यों न जाऊं लेकिन इन शूद्र अति शूद्र लोगों को एक कोड़ी भी हक अधिकार नहीं मिलने चाहिए।*
*गांधी ने लोगों को ये कहकर विरोध करवाया कि इसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं है,, दूसरे अर्थों में गांधी ये कहना चाहता था,, कि इस कमिशन में ब्राह्मण बनियों को क्यों नहीं लिया।।*
*क्योंकि गांधी ने मरते दम तक एक भी ओबीसी के आदमी में सविधान सभा में नहीं पहुंचने दिया,, इसलिए बाबा साहब ने ओबीसी के लिए आर्टिकल 340 बनाया और संख्या के अनुपात में हक अधिकार देने का प्रावधान किया।।*
*दूसरी तरफ साइमन का स्वागत करने के लिए चौधरी सर छोटूराम जी ने एक दिन पहले ही लाहौर के रेलवे स्टेशन पर जाकर उनका स्वागत किया,, यूपी से ऐसा ही स्वागत शिवदयाल चौरसिया ने किया,, और डॉक्टर अम्बेडकर ने अलग अलग जगह पर अंग्रेजो का सहयोग कियसा और भारत में जाति व्यवस्था की जमीनी स्तर की सही जानकारी साइमन कमीशन को दी,, जिसकी वजह से गोलमेज सम्मेलन में हम भारत के हजारों सालों से शिक्षा,, ज्ञान,, विज्ञान,, तकनीक,, संपति,, और बोलने सुनने और पढ़ने लिखने से वंचित किए गए लोगों और उस समय के राजा महाराजाओं की ओकात एक बराबर कर दी,, वोट का अधिकार देकर।।*
*लेकिन क्या हम ओबीसी,, एससी एस टी अपने वोट की कीमत आज तक जान पाए,, कभी नहीं जान पाए,, इसलिए हम आज भी 15% लोगों के गुलाम है।।*
*दूसरी बात साइमन का विरोध करके हमारे हक अधिकार का कोन लोग विरोध कर रहे थे।।*
*1- कर्मचंद गांधी गुजरात का गोड बनिया।*
*2- जवाहर लाल नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण।*
*3- लाला लाजपतराय पंजाब के ब्राह्मण।।*
*4- आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर केशव बली हेडगवार ब्राह्मण और पूरी की पूरी आरएसएस लाबी ।।*
*ये लोग इसलिए विरोध कर रहे थे,, क्योंकि इनकी संख्या भारत में मुश्किल से 15% है और इनको ग्राम पंचायत का पंच नहीं चुना जा सकता,, इसलिए 85% एससी, एस टी और ओबीसी के वोट के अधिकार का,, शिक्षा,, संपति और अलग अलग क्षेत्र में प्रतिनिधित्व का विरोध कर रहे थे।।*
*अत: हमें मालुम होना चाहिये हमारा इतिहास वो नहीं है जो हमे पढ़ाया जाता रहा है,, बल्कि वो है जो हम से छुपाया जाता रहा है।।*
*अब भी अगर अपना इतिहास नही जानोगे तो समाज का सही मार्ग दर्शन नही हो पाएगा*
जय यौद्धेय
Partly Cloudy today!
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Current wind speeds: 6 from the Northwest
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June 13, 2020 at 04:00PM
शुक्रवार, 12 जून 2020
Partly Cloudy today!
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June 12, 2020 at 04:00PM
गुरुवार, 11 जून 2020
लालू प्रसाद यादव
11जून 1948को गोपालगंज जिले के फुलवारिया गांव में कुन्दनराय यादव व मराछिया देवी के घर पैदा हुए लालू प्रसाद यादव छात्र नेता,सांसद, मुख्यमंत्री,रेल मंत्री बनने के बाद आज झारखंड की बिरसा मुंडा जेल में बंद है।भारत मे पिछड़ों को न्याय की बात जब भी पटल पर आयेगी लालू प्रसाद यादव का नाम साथ मे जरूर लिया जाएगा।लालूप्रसाद यादव भैंसों के तबेले से जिंदगी की शुरुआत करते है और आज भी उनके घर मे भैंसे बंधी रहती है।अपने जीवन में चाहे किसी पद पर पहुंचे हो मगर अपना रहन सहन वो ही देहाती रखा है।कितने ही ऊँचे पायदान नापे हो मगर अपनी जड़ों पर कायम रहे उसी का नतीजा है कि आज वो भ्रष्टाचार के मामले में जेल में है मगर पूरे देश का पिछड़ा वर्ग उनको सम्मान की नजर से देखता है और बिहार के लोग तो इतने दीवाने है कि कांग्रेस,बीजेपी, जेडीयू सहित तमाम विरोधी इन चुनावों में लालू नाम के आगे नतमस्तक होते नजर आ रहे है!
लालूप्रसाद यादव 1970में पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के महासचिव व 1973में अध्यक्ष चुने गए।लालू यादव 1974 में जेपी के बिहार आंदोलन में शामिल हो गए।1977में जनता दल के टिकट पर छपरा से चुनाव लड़ा और उस समय सबसे कम उम्र 29वर्ष में सांसद चुने गए थे।1980 व 1985में बिहार विधानसभा के लिए चुने गए और 1989में कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद वो विधानसभा के नेता बन गए और 1989में ही लोकसभा के लिए चुने गए थे।1989के बाद लालू का दौर बिहार में शुरू होता है।1989में दो घटनाएं घटती है और उन पर कड़ा रुख अपनाने के कारण लालूप्रसाद यादव देशभर में एक मजबूत व अपने स्टैंड पर कायम रहते हुए पिछड़ो,दलितों व अल्पसंख्यकों के नेता के रूप में उभरे।
1989 में बिहार के भागलपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ और कांग्रेस पार्टी इसको रोकने में असफल हो गई।लालूप्रसाद यादव ने मुसलमानों को विश्वास दिलाया कि आप कांग्रेस छोड़कर मेरे साथ आओ में आपके अधिकारों की रक्षा करूँगा!इस प्रकार एम व वाई का समीकरण बना और लालू यादव की ताकत बढ़ी।1989में ही वीपी सिंह सरकार पर दबाव बनाकर मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करवा दिया जिससे बाकी पिछड़े वर्ग के लोग भी लालूप्रसाद के साथ जुड़ते गए और 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।
मंडल के खिलाफ राममंदिर के बहाने सोमनाथ से लालकृष्ण आडवाणी कमंडल का रथ लेकर निकले और देश मे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होने लगा।अब लालू प्रसाद यादव की असली परीक्षा होनी थी।जैसे ही लालकृष्ण आडवाणी का रथ 23दिसंबर 1990 को बिहार के समस्तीपुर में घुसा, लालू प्रसाद ने आडवाणी को गिरफ्तार करके कोलकाता ले जाकर छोड़ दिया।इससे अल्पसंख्यको का विश्वास लालूप्रसाद में बढ़ा और आज भी वो डटकर लालूजी के साथ खड़े है।
लालूप्रसाद यादव को सिर्फ राजनैतिक या प्रशासनिक पदों के अनुरूप देखना उनके साथ न्यायसंगत नहीं होगा।लालू के दौर में पहाड़ों में पत्थर तोड़ने वाली दलित भगवंतिया देवी रातों रात संसद की दहलीज पर पहुंच जाती है तो घास-फूस की टाट में जीवन काटने वाले एक मोची का बेटा शिवचंद्र राम बिहार सरकार में कैबिनेट मंत्री बन जाता है व धोबी घाट पर जिंदगी गुजारने वाले श्याम रज्जक को लाल बत्ती की गाड़ी मिल जाती है।लालू ने सदियों से खोबचे में धकेले गए लोगों को मुख्यधारा में लाने का कार्य किया और देखते ही देखते बिहार की बहुसंख्यक जनता खुद को एक अव्वल नागरिक होने व अपना राज होने के लम्हों से अभिभूत हो गई।
मगर देश की ब्राह्मणवादी सत्ता,मीडिया व न्यायपालिका को यह स्वीकार्य नहीं था कि कोई पिछड़े का बेटा उन पर राज करे और षड्यंत्रों का दौर शुरु हो गया।15साल के उनके कार्यकाल को जंगलराज बताया गया था और दुष्प्रचार शुरू कर दिया मगर लालू अपने इरादों से टस से मस नहीं हुए।अपने समर्थकों के साथ ब्राह्मणवादी ताकतों को जवाब देते रहे मगर अपने साथी के धोखे के कारण वो आज जेल में है!
चारा घोटाले का मुख्य आरोपी पूर्व मुख्यमंत्री आज आजाद है मगर चारा घोटाले की जांच का आदेश देने वाला उत्तराधिकारी मुख्यमंत्री जेल में है क्योंकि बाकी आरोपियों के खिलाफ सबूत नहीं मिले और लालूप्रसाद यादव ने शायद चारा खाकर मी लार्ड की टेबल पर ही गोबर कर दिया हो!
1991तक बिहार में शिक्षा में वृद्धि दर 6%थी और 1991से 2001के बीच यह 10%से ज्यादा रही।1990में देश की माली हालात खराब थी व उदारीकरण के दुष्परिणाम के बीच भी बिहार राज्य में समान अवसरों को मद्देनजर रखते हुए 6विश्वविद्यालय खोले गए15 साल के शासनकाल में केंद्र सरकार ने भी बिहार को बहुत ज्यादा आर्थिक मदद नहीं दी!सामंतों का अत्याचार, शासन पर अभिजात्य वर्ग का कब्जा और केंद्र सरकार का बिहार के प्रति दोहरा मापदंड- ऐसी कई चीजें झेलकर शासन करना एक पिछड़े तबके से आने वाले मुख्यमंत्री के लिए आसान नहीं था!
1991में प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए बिहार शिक्षा परियोजना परिषद की स्थापना की गई और 1995 में देश मे सबसे पहले बिहार में मिड डे मील की शुरुआत की गई और उस समय हर छात्र को 3किलो अनाज दिया जाता था जिसे वाजपेयी की केंद्र सरकार ने देशभर में लागू किया था।
देश की खराब अर्थव्यवस्था का बिहार पर भी प्रभाव पड़ा और मीडिया ने बीमारू राज्य कहना शुरू कर दिया!पूंजीवादी लुटेरों के हलक में हाथ डालकर जब पूंजी का गरीबों में वितरण हुआ तो कागजी आंकड़ों में जरूर गिरावट दर्ज की गई मगर समाजवादी मॉडल के अनरूप आमजन मजबूत हुआ था।
ब्राह्मणवादी सत्ता,मीडिया व न्यायपालिका ने लालू के रथ को हर समय रोकने की कोशिश की मगर लालू एक ब्रांड के रूप में आगे बढ़ते रहे।लालू को जब सीबीआई कोर्ट में समर्पण करना पड़ा तब अपनी अनपढ़ पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाकर शासन जारी रखा मगर इनको कभी जीतने नहीं दिया।
लालू प्रसाद के समकालीन नेता रहे चौधरी देवीलाल आज दुनियाँ में नहीं है और उनके परिवार को ब्राह्मणवादियों ने दो भागों में विभक्त कर दिया!शरद यादव को ब्राह्मणवादियों के जाल में फंसकर उनके ही साथी ने धोखा दिया तो कोई भी ब्राह्मणवादी पार्टी उनके साथ खड़ी नहीं हुई मगर जेल में बैठा लालू यादव उनकी मदद को आगे आया!मुलायम सिंह ने यूपी में बहुत संघर्ष किया मगर लालू के साथ तुलना की जाए तो वो भी बौने ही नजर आते है।
लालू चाहे आज जेल में हो और पूरी ब्राह्मणवादी ताकतें उनको खत्म करने में लगी हो मगर लालू सामाजिक न्याय व समतामूलक समाज का ऐसा ब्रांड बन चुका है जिसे रोकना संभव नहीं है।भौतिक रूप से भले ही लालू हार जाएं मगर विचारधारा के रूप में लालू ब्रांड सदा मार्गदर्शक बनकर जिंदा रहेगा और आने वाले विधानसभा चुनाव में दुबारा बड़ी ताकत बनकर उभरेगा।
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